मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था
के वो रोक लेगी मना लेगी मुझको
के वो रोक लेगी मना लेगी मुझको
हवाओं में लहराता आता था दामन
के दामन पकड़कर बिठा लेगी मुझको
के दामन पकड़कर बिठा लेगी मुझको
कदम ऐसे अंदाज़ से उठ रहे थे
के आवाज़ देकर बुला लेगी मुझको
के आवाज़ देकर बुला लेगी मुझको
मगर उसने रोका
Mohammad Rafi |
न उसने मनाया
न दामन ही पकड़ा
न मुझको बिठाया
न आवाज़ ही दी
न वापस बुलाया
न दामन ही पकड़ा
न मुझको बिठाया
न आवाज़ ही दी
न वापस बुलाया
मैं आहिस्ता आहिस्ता बढ़ता ही आया
यहाँ तक के उससे जुदा हो गया मैं ...
यहाँ तक के उससे जुदा हो गया मैं ...
---- हकीकत (१९६४)(कैफी आझमी)
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