Sunday, August 14, 2011

मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था


मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था
के वो रोक लेगी मना लेगी मुझको

हवाओं में लहराता आता था दामन
के दामन पकड़कर बिठा लेगी मुझको

कदम ऐसे अंदाज़ से उठ रहे थे
के आवाज़ देकर बुला लेगी मुझको


मगर उसने रोका
Mohammad Rafi
न उसने मनाया
न दामन ही पकड़ा
न मुझको बिठाया
न आवाज़ ही दी
न वापस बुलाया

मैं आहिस्ता आहिस्ता बढ़ता ही आया
यहाँ तक के उससे जुदा हो गया मैं ...
---- हकीकत (१९६४)(कैफी आझमी)

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